.......मियां मुनव्वर आज काफी गुस्से में थे।.....सुबह-सुबह दरवाजे पर पहुंचे, और लगे छड़ी पीटने।....मैंने दरवाजा खोला और फट पड़ा---- "......क्या यार, काहे को शत्रुघ्न सिंहा बने जा रहे हो ?"।.......मुनव्वर उसी तेवर में सोफे में समा गये।.....छड़ी सामने फेंकी, और मुझे अजीब नजरों से निहारने लगे।......मैं बोला,-----" यार!....मैं बीजेपी नहीं हूं, जो कल्याण की नजरों से निहार रहे हो,,...आखिर हुआ क्या ? "..........मुनव्वर कुछ देर तक मौन साधे बैठे रहे और फिर बोले---"यार!...इस देश में हो क्या रहा है?".......मैं बोला,-----" भाई पहले पानी पी, थोड़ा सा आराम फरमा, फिर बोल हुआ क्या?"....मुनव्वर थोड़ा सम्भले, पानी का गिलास गले में उड़ेला और बोले,-----"यार!...तूने अखबार पढा?"........मैं बोला,----"सुबह-सुबह तो तू भैरो सिंह शेखावत बना आ गिरा, अखबार कब पढूंगा?".....यार अखबार पढ़, बैगलुरु भी मुंबई बन गया है!......कोई नया राज ठाकरे वहां भी पैदा हो गया है, और किसी राम सेना ने एक पब में घुसकर जो किया उसे तो तू अगर टीवी में देखता तो आंखे फेर लेता।.....इस देश में सारे उल्टे काम भगवानों के नाम पर ही क्यों होते हैं?......मैं बोला,----" यार, चीजों को समझ,.....तू अब से पहले किसी राम सेना को जानता था?....अगर जानता था, तो इसके नेताओं को पहचानता था ??.....अब बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ।........यहां-वहां जो सारे सीधे-उल्टे काम कर रहे हैं, वो बस आगे बढ़ने के लिए छोटी राह के राही हैं।.....तेरे-मेरे घर में दिन-रात भौंकने वाला बक्सा है ही। वहां जो घटता है फौरन तुझतक पहुंच जाता है। ......यही न होता है कि तेरी आत्मा को यह चोट पहुंचाता है।....लेकिन कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें ये ठीक भी लगता है। राम, शिव, बजरंग के नाम भी इसी लिए रखे जाते हैं ताकि इन काठ के उल्लुओं को समझाया जा सके।....इस सब पर धर्म, समाज, क्षेत्र, जाति रक्षा जैसे भारी-भारी शब्दों की कोटिंग हो जाती है। बस काम बन गया। गुजरात में धर्म के नाम पर सियासत की रोटी सेंकी गई।....महाराष्ट्र में क्षेत्र वाद के नाम पर यही सब हो रहा है।....तो कहीं और समाज बचाने अगर भाई लोग जुटे हैं तो तू इतना खफा क्यों है ?.......ठंड रख!.....सर्दी बढ़ गई है, चाय बनाता हूं, चाय पी!!.......घर जा, भाभी ने सामानों की लिस्ट बनाई होगी, बाजार से सामान ला।......लजीज बिरयानी खा और टीवी देखते हुए आराम से सो जा!!.....मुनव्वर भी शायद चीजों को समझ गया था।
बुधवार, 28 जनवरी 2009
मंगलवार, 20 जनवरी 2009
एक यकीन जो जिन्दा है अभी
चाहता हूं एक अनुभव बांटू। वाकया लखनऊ का है। उस दिन मैं देर रात लखनऊ की सड़कों पर भटक रहा था। बदकिस्मती या फिर कहें मेरी लापरवाही से गाजियाबाद जा रही मेरी ट्रेन छूट चुकी थी। इंटरनेट टिकट था लिहाजा अंदेशा था कि एक धेला भी वापस न पा सकूंगा। कुछ देर रेलवे टिकट
खिड़की पर बेवजह की हुज्जत की और फिर देर रात शहर की सड़कों पर किसी इंटरनेट झोपड़ी को तलाशने निकल पड़ा। चन्द पैसे वापस पा लेने की एक छोटी सी आशा दरअसल उस वक्त तक मेरे साथ थी। लखनऊ अभी भी रात में आराम फरमाता है, लिहाजा महज एक इन्टरनेट की तलाश में मैं सड़कों पर बेवजह भटकता रहा। पर अचानक एक ऊंघती सी जगह मुझे नजर आयी जहां मेरी आशाओं को कुछ ठौर मिल सकता था। भीतर पहुंचा तो मालिक नुमा शख्स ने भांप लिया कि फिलहाल मेरे लिए वह भगवान है। मैं इंटरनेट की मदद से कहीं जाना चाहता था और उसने इस सफर की कीमत इतनी बढ़ा दी कि मैं भी चन्द लम्हों के लिए सकते में आ गया। बहरहाल, मैंने अपनी सीट ग्रहण की और दुनिया में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गया। जिस समय मैं अपने पैसे बचाने की कवायद में जुटा था उस वक्त साथ आया मेरा साथी वहीं था। मेरे आस पास दो लोग और मौजूद थे जो रिमोट पर उंगलियां घुमा देश-दुनिया का जायजा लेने में जुटे थे। विज्ञापनों के बीच जब थोड़ी मोहलत मिली तो उनमें से किसी ने अपने आस-पास की दुनिया के बारे में उत्सुकता जाहिर की। परिचय के बीच जब उन्हें पता चला कि हम मीडिया की दुनिया से ताल्लुक रखते हैं तो उनका लहजा बदल गया। उपेक्षित से खड़े मित्र के लिए एक कुर्सी मंगाई गई और उसे सादर आमंत्रित किया गया। बहरहाल, जिस दरमियान मैं अपनी इंटरनेट की दुनिया में था उस वक्त मेरे आस पास एक बहस चल रही थी। इस दौरान जो शब्द मेरे कानों में पड़ा वह आज भी मुझे गर्व से भर देता है। एक आवाज कह रही थी कि "मीडिया की वजह से ही हम जिन्दा हैं"।.... उस आवाज में जो ऊष्मा थी औऱ उस आवाज से सच्चाई और विश्वास की जो महक आ रही थी दरअसल उसने मुझे उद्वेलित किया था। मेरे आस-पास उस वक्त हजारों सवाल बिखरे थे। बहस जो कर रहे थे वो हिन्दुस्तानी मुसलमान थे। ऐसे मुसलमान जो ईमान से भारतीय थे, लेकिन खुद को अपने ही देश में बेगाना पा रहे थे। अपने आस-पास बिखरे अविश्वास के माहौल से वो नाराज थे। ऐसे ढेरों सवाल उनके पास मौजूद थे जिनका जवाब न तो मेरे पास था और न ही किसी और को पास होगा। बहस के दौरान मैंने साफ महसूस किया कि अयोध्या विवाद के दौरान शासन-प्रशासन के एकतरफा रूख को जो मुसलमान बिसरा रहा था उस दर्द को गुजरात ने हरा कर दिया। दरअसल उनके तर्को का जवाब मेरे पास भी नहीं था। जुल्मों की इंतहा जो हमने की है वो किसी औरंगजेब और गजनी से बेशक कम नहीं। इतिहास बेशक हमें माफ नहीं करेगा। यह भी सच है कि अपनी लाख बुराइयों के बावजूद मीडिया ने उस दर्द, उस अन्याय के लिए आवाज उठाई थी। उस समय की निष्पक्ष तस्वीरें जो बयान कर रही थी वो किसी सभ्य समाज के लिए बेशक शर्म थी। दरअसल गुजरात के दंगों में सबसे कुपित यह करता है कि यह राज्य प्रायोजित हिंसा थी। सत्ता की सियासत के लिए एक सूबे को हिंसा में झोंक दिया गया। ....कभी- कभी इसे गोधरा की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का तर्क देते हुए इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुई हिंसा से जोड़ कर देखने का तर्क दिया जाता है। लेकिन यह तर्क देते समय भूल जाया जाता है कि ८४ के दंगो पर महज तीन दिनों में काबू पा लिया गया था। लेकिन गुजरात में चल रहा नरसंहार तीन दिनों तक चलता रहा।
खिड़की पर बेवजह की हुज्जत की और फिर देर रात शहर की सड़कों पर किसी इंटरनेट झोपड़ी को तलाशने निकल पड़ा। चन्द पैसे वापस पा लेने की एक छोटी सी आशा दरअसल उस वक्त तक मेरे साथ थी। लखनऊ अभी भी रात में आराम फरमाता है, लिहाजा महज एक इन्टरनेट की तलाश में मैं सड़कों पर बेवजह भटकता रहा। पर अचानक एक ऊंघती सी जगह मुझे नजर आयी जहां मेरी आशाओं को कुछ ठौर मिल सकता था। भीतर पहुंचा तो मालिक नुमा शख्स ने भांप लिया कि फिलहाल मेरे लिए वह भगवान है। मैं इंटरनेट की मदद से कहीं जाना चाहता था और उसने इस सफर की कीमत इतनी बढ़ा दी कि मैं भी चन्द लम्हों के लिए सकते में आ गया। बहरहाल, मैंने अपनी सीट ग्रहण की और दुनिया में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गया। जिस समय मैं अपने पैसे बचाने की कवायद में जुटा था उस वक्त साथ आया मेरा साथी वहीं था। मेरे आस पास दो लोग और मौजूद थे जो रिमोट पर उंगलियां घुमा देश-दुनिया का जायजा लेने में जुटे थे। विज्ञापनों के बीच जब थोड़ी मोहलत मिली तो उनमें से किसी ने अपने आस-पास की दुनिया के बारे में उत्सुकता जाहिर की। परिचय के बीच जब उन्हें पता चला कि हम मीडिया की दुनिया से ताल्लुक रखते हैं तो उनका लहजा बदल गया। उपेक्षित से खड़े मित्र के लिए एक कुर्सी मंगाई गई और उसे सादर आमंत्रित किया गया। बहरहाल, जिस दरमियान मैं अपनी इंटरनेट की दुनिया में था उस वक्त मेरे आस पास एक बहस चल रही थी। इस दौरान जो शब्द मेरे कानों में पड़ा वह आज भी मुझे गर्व से भर देता है। एक आवाज कह रही थी कि "मीडिया की वजह से ही हम जिन्दा हैं"।.... उस आवाज में जो ऊष्मा थी औऱ उस आवाज से सच्चाई और विश्वास की जो महक आ रही थी दरअसल उसने मुझे उद्वेलित किया था। मेरे आस-पास उस वक्त हजारों सवाल बिखरे थे। बहस जो कर रहे थे वो हिन्दुस्तानी मुसलमान थे। ऐसे मुसलमान जो ईमान से भारतीय थे, लेकिन खुद को अपने ही देश में बेगाना पा रहे थे। अपने आस-पास बिखरे अविश्वास के माहौल से वो नाराज थे। ऐसे ढेरों सवाल उनके पास मौजूद थे जिनका जवाब न तो मेरे पास था और न ही किसी और को पास होगा। बहस के दौरान मैंने साफ महसूस किया कि अयोध्या विवाद के दौरान शासन-प्रशासन के एकतरफा रूख को जो मुसलमान बिसरा रहा था उस दर्द को गुजरात ने हरा कर दिया। दरअसल उनके तर्को का जवाब मेरे पास भी नहीं था। जुल्मों की इंतहा जो हमने की है वो किसी औरंगजेब और गजनी से बेशक कम नहीं। इतिहास बेशक हमें माफ नहीं करेगा। यह भी सच है कि अपनी लाख बुराइयों के बावजूद मीडिया ने उस दर्द, उस अन्याय के लिए आवाज उठाई थी। उस समय की निष्पक्ष तस्वीरें जो बयान कर रही थी वो किसी सभ्य समाज के लिए बेशक शर्म थी। दरअसल गुजरात के दंगों में सबसे कुपित यह करता है कि यह राज्य प्रायोजित हिंसा थी। सत्ता की सियासत के लिए एक सूबे को हिंसा में झोंक दिया गया। ....कभी- कभी इसे गोधरा की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का तर्क देते हुए इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुई हिंसा से जोड़ कर देखने का तर्क दिया जाता है। लेकिन यह तर्क देते समय भूल जाया जाता है कि ८४ के दंगो पर महज तीन दिनों में काबू पा लिया गया था। लेकिन गुजरात में चल रहा नरसंहार तीन दिनों तक चलता रहा।
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